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समय का सच / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
इंसानियत उस वक्त दम तोड़ती है
जब मर्यादा किसी की नंगी होती है
इस्मतदरी और रुसवाई किसी की
कुछ आंखों कानों में दिलचस्प होती है
अब तो बदल जाओ बदलाव का मौसम है
जो बहती नहीं नदी वो गंदी होती है
दामन उठाने वालों माँ व बहन को झांको
फिर देखिये तुम पर कैसी गुजरती है
जला के शमां कभी तन्हाई को देखो
दूसरों के खातिर वो कितना जलती है
कुछ नहीं कर सकते यह सोचते रह गये
चाँद डूबने पर चाँदनी नहीं होती है