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समर्पण / महेन्द्र भटनागर
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ओ राकापति ! देख तुम्हें सब
रूप-गर्विताएँ लज्जित हैं !
सौन्दर्य सभी का फीका-सा
लगता है, जब तुम आते हो,
अपनी शीतल नव चांदी-सी
आभा ले नभ में छाते हो,
- जाने कितना स्वर्गिक-वैभव
- अंगों में, उर में संचित है !
- जाने कितना स्वर्गिक-वैभव
केवल मुसकान-किरन पर ही
जग का सब वैभव न्यौछावर,
बलिहारी जाता है कवि का
तन-मन, ओ नभवासी सुंदर !
- देख तुम्हें जग के कन-कन का
- अंतर-आनंद असीमित है !
- देख तुम्हें जग के कन-कन का