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समूचे आँगन में / अनुभूति गुप्ता
Kavita Kosh से
समूचे आँगन में
बड़े चाव से
गुलाब तो लगाये
छलावों
भुलावों
अलगावों में,
बनते रिश्ते भी
बिगड़-से गये
अब तो
पनपते हैं
पीढ़ी-दर-पीढ़ी
बस
काँटे ही काँटे
मन की बस्तियों में
गहरी झनझनाहट से भरे
चीखते
चिल्लाते
साँय-साँय करते हुए
सन्नाटे...