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सरिता: रसवन्तो / पयस्विनी / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’

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कलकल छलछल उज्ज्वल रूपवती के जाइछ?
अवनी-तल निम्नोन्नत यदपि न गति वेगेँ भसिआइछ!!
उभय कूल मर्यादित रहितहुँ वेगवती दु्रत गमना!
दिवा-निशा दुहु दिशा अभिसरण निपुण बेशिनी ललना!!
निभृत निकुंज दूरतम प्रियतम नीर नील घन-श्याम!
की तनिकहि तकबाक उदेसेँ चललि प्रेम उद्दाम?
तट - नितम्बिनी मोड़ि-मोड़ि कटि-देश, नृत्य रस निपुणा।
कल-कल गीत गबैत नचैत कछैत सतत दु्रतचरणा।।
ताल तरंग संग पुरइछ तट - तरु खग वीणा संगत।
अनुरागिणी रागिणी गबइत करइछ छवि नव रंगत।।
आवर्तक भू्र-भंगिमाक अभिनय सकेत विधान।
लहरिक लहरापर नचइत अबइछ ई नटी प्रमान।।
कल-कल शब्द अलंकृत झंकृत गुणमय रीति विलक्षण।
भाव गभीर नीर अवगाहक भावुक उर हर तत्क्षण।।
ध्वनि रंजित, पद-पद विलक्षणा संकेतेँ अभिधावित।
अनुभाविनी भाव संचारिनि सत् शिवत्व दिस भावित।।
गति स्वच्छन्द अमन्द तरंगिनि कवि-उर अजिर स्रवन्ती।
राशि राशि सौन्दर्य प्रवाहित बिन्दु-बिन्दु रसवन्ती।।