सहजन-1 / रंजना जायसवाल
सहजन
कल तक तो
ख़ूब फब रहे थे तुम
हरे कोट
और सफ़ेद टोपी में
तुम्हारा फूलों-सा मुख
जब चूमती थी हवा
खिलखिला पड़ते थे तुम
अपने आस-पास रहने वाली
आम की सुनहरी
मंजरियों की ओर देखकर
जिनकी ख़ुशबू से
मीठा-मीठा-सा रहता था
तुम्हारा मन...
औचक क्या हुआ
कि तुम सहज न रहे सहजन
होते गये कठोर-नुकीले
और मज़बूत
अपने इर्द-गिर्द बना लिया
तुमने एक सुरक्षा-कवच
कि तुम्हें पाने के लिए
चढ़ना पड़ता है
तुम्हारे सीने पर
करना पड़ता है इस्तेमाल
तेज़ हथियार का
तुम अंत तक नहीं छोड़ते
अपना कसैलापन
कोई भी मसाला
नहीं बदल पाता है तुम्हें
सुस्वाद में...
सहजन,
तुम क्यों सहज न रहे
जबकि तुम्हारी बाल्य-सखियाँ
वे मंजरियाँ
करती रहीं यात्रा
खटास से मिठास तक की
तुम्हें किससे शिकायत है, मित्र!
क्या प्रकृति से
जिसने वंचित रखा तुम्हें
मादक रूप और सुगन्ध से
या फिर दुनिया से
जिसकी उपेक्षा ने
भर दी कड़वाहट तुममें
कम से कम
मेरे आगे तो खोलो मन
सहजन...!