साँझ-12 / जगदीश गुप्त
निमर्म हिम-शैल-शिखर से,
जब भी जाकर टकराते।
मेरी करूणा के बादल,
सब चूर-चूर हो जाते।।१६६।।
विक्षुब्ध प्रलय-प्लावन में,
आँसू का जलधि विकल हो।
पलकों के नीचे जल हो,
पुतली के ऊपर जल हो।।१६७।।
नभ में निरीह तिरता है,
लेकर समीर की पाँखें।
बँूदें बादल के आँसू,
बिजली बादल की आँखें।।१६८।।
वह कौन अमृत आशा है,
किसकी साधना अमित है।
बिजलियाँ सतत डसती हैं,
फिर भी पयोद जीवित है।।१६९।।
डगमग पग गगन-डगर में,
झूमतीं निगाहें भोली।
कादम्ब पिये आती है,
कादिम्बनियों की टोली।।१७०।।
जिनसे दृग भर लेने को,
अमरो के हृदय तरसते।
बिजली की मुसकानों से,
सोने के फूल बरसते।।१७१।।
अन्तर हैं विसुधि-युगों का,
हैं कोसों दूर बसेरे।
फिर भी इस सधन निशा में,
कितने समीप तुम मेरे।।१७२।।
तुम चले लहर कर जैसे,
आ गई बाढ़ यौवन में,
भर गया दृगों में पानी,
कितनी बिछलन थी मन में।।१७३।।
कल्पना सिहर जाती है,
उठ़ती है पीर हृदय में।
बिजलियाँ जलद में जैसे,
चुभते हैं तीर हृदय में।।१७४।।
मैंने छिव की छाया के,
संकेत हृदय पर आँके।
बादल-दल के पीछे से,
तुम कौन तिड़त से झाँके।।१७५।।
पीड़ा से रोते-रोते,
पड़ गये सभी रँग फीके।
बादल-समूह पर होते,
नित कशाघात बिजली के।।१७६।।
मिल गई धूल में धरती,
मस्तक झुक गये दर्ुमों के।
हिल उठी दिशाएँ सारी,
थे क्रुद्ध पवन के झोंके।।१७७।।
इतना जल ले आई हैं,
कितने लोचन कर छँूछे।
कल-कल करती सरिता की,
लहरों से कोई पँूछे।।१७८।।
धरती पर उजले जल के,
कन छलक-छलक कर ढलके।
फिर से पावस भर लायी,
सुरमई कलश बादल के।।१७९।।
जब नयन सरल स्वीकृति दें,
ढीली पड़ जायें भौंहें।
अपने असत्य के पीछे,
छिपकर रह जायें सौंहें।।१८०।।