साजन लेंगे जोग री / बालकृष्ण शर्मा 'नवीन'
आज सुना है सखी, हमारे साजन लेंगे जोग, री,
हमें दान में दे जाएँगे वे विकराल वियोग, री।
इस चौमासे के सावन में घन बरसें' दिन रात, री,
ऐसी ऋतु में भी क्या होती कहीं जोग की बात, री,
घन-धारा में टिक पाएगी कैसे अंग भभूत, री,
फल जाएगी इक छिन-भर में यह विराग की छूत, री,
अभी सुना है साजन गेरुए वस्त्र रंगेंगे आज, री,
और छोड़ देंगे वे अपनी रानी, अपना राज, री,
हिय-मंथन शीलअ रति में भी यदि न विराग-विचार, री,
तो फिर बाह्य आवरण भर में है क्या कुछ भी सार, री?
प्रेम नित्य संन्यास नहीं, तो अन्य योग है रोग, री,
सखी, कहो, ले रहे सजन क्यों व्यर्थ अटपटा जोग, री,
हमने उनके अर्थ रंग लिया निज मन गैरिक रंग, री,
और उन्हींके अर्थ सुगंधित किए सभी अंग-अंग, री,
सजन-लगन में हृदय हो चुका मूर्तिमंता संन्यासी, री,
अब जोगी बन छोड़ेंगे क्या वे यह हिय-आवास, री,
सजनि, रंच कह दो उनसे है यह बेतुका विचार, री,
उनके रमते-जोगीपन से होगा जीवन भार, री,
चौमासे में अनिकेतन भी करते कुटी-प्रवेश, री,
उनके क्या सूझी कि फिरेंगे वे सब देश-विदेश, री,
उनका अभिनव योग बनेगा इस जीवन का सोग, री,
सखी, नैन कैसे देखेंगे उनका वह सब जोग, री।