डाल-डाल पात-पात
फूल पांखुरी
फिर गई मुनादी-सी
किरन की कथा
सिहर गई पर्त-पर्त
अधखिली कली,
घटनायें रौंद गई
गाँव की गली,
मुँह फाड़े देख रही
पनघट की भीड़,
घुड़सवार लमहों को
कुछ नहीं पता
खिड़की पर बैठा
गौरैया का गीत
झेल रहा
पूस माह, की सारी शीत,
ताप लिया हम सबने
गीत का इमान
ठिठुरे स्पन्दन-सी कुछ
शब्द की व्यथा
घाटों की सीढ़ी पर
जमी हुई काई
फिसल रहे पावों को
दे रही बधाई
पोखर पर छैलती
सिंघाड़े की बेल
पा गई
छुपे वसन्त का अता -पता
गर्म-गर्म भाप
चाय की लिये बगैर
कैसे जग जाता है
जंगली कनैर,
उग आई चुपके-से
बिना बीज की
शरमाती-शरमाती
धूप की लता।