सिकुड़ा अँगूठा / मंजुला बिष्ट
पहाड़ काटकर
वर्तमान में रोज़गार
और भविष्य के सुगम हाईवे तैयार किये जा रहे हैं
चौड़ी..और चौड़ी होती सड़क के किनारे
आस-पास बचे दो पेड़ों की डालियों के बीच
साड़ी के टुकड़े में रख छोड़ा
एक अधनंगा शिशु
चटकते आसमान में पुरखे तारों से खेल रहा है
उसने अपनी भूख को शांत करने के लिए
मैला अँगूठा मुँह में फंसा रखा है
सिर पर तसला रखती उसकी माँ के लिए
बार-बार उस तक पहुँचने से पहले
ठेकेदार की ओर देखना जरूरी है
और ठेकेदार अपने हाज़िरी-रजिस्टर में
कुछ ज्यादा झुका है
महीने का अंत जो नज़दीक है!
उसके फैले हुए आर्द्र-हाथ बार-बार
जेब की तरफ चले जाते हैं
लेकिन आश्चर्य !
हाथ की मुट्ठी बनती ही नहीं
मुट्ठी खुली रह जाती है
हर बार ही
माँ जानती है
अगर वह सीधी राह न चली तो
नये माह की शुरुआत में
अपने लिए एक नई सड़क
और उसके शिशु के लिए
दो बचे पेड़ फिर खोजने होंगे
एक तरह से
वह और ठेकेदार
अपनी-अपनी आदिम-लकीर को पीट रहें हैं
और शिशु भी
अब अपनी भूख लगने के समय को पहचानने लगा है
माँ का ध्यान इस तरफ नहीं जाता है कि
चूसते रहने से
शिशु का अँगूठा सिकुड़ जाएगा
उसने अपने हक़ में
एक यक़ीन पुख़्ता किया हुआ है कि
हाज़िरी-रजिस्टर में सिकुड़े अंगूठें ही देर तक छपते रहतें हैं
जिद्दी अंगूठें तो पलायन को विवश हैं।