सिरफिरा / विपिन चौधरी
बिना पते की चिट्ठी की तरह,
वह अपने नाम के ईद-गिर्द बेहिसाब चक्कर लगाता है फिर,
दाल-भात खाने बैठ जाता है
बोलने से पहले वह दस बार नहीं सोचता
उसके अंट-शंट बोलने से ही
पंचायत के तलवों तक में पसीना चूने लगता है,
सिरफिरे को जरा भी शर्म नहीं लगती
वह बिना पजामा ऊँचा किये ही गाँव की कचरे से अटी हुई नालियां साफ कर देता है
पड़ोस में पीटती हुई बहू को मारने वालों पर बिना लाठी के ही पिल पड़ता है
अंधेरे-उजाले में वह इतना ही अंतर समझता है कि
दाढ़ी बनाना आसान हो बस,
उसके दायें हाथ की अनामिका का नाखून कलयुग का वास्ता देता हुआ लगता है
मनुष्यों की जाति बंदर करने की योजना बनाई जाती है उसके लिए
कभी वह अपने आप को प्रधानमंत्री और कभी गली का चौकीदार मानने की सरल गुस्ताखी कर बैठता है
कभी अपने दायें पाँव की एड़ी से पानी निकालने की कोशिश करता दिखता है वह
पागलपन की इस दशा में भी वह प्यार का भूखा है
महाभारत की कूटनीतियाँ उसे कंठस्थ हैं
वह बाँच सकता है आकाश के सैंकड़ों तारों की कुण्डलियाँ,
कर सकता है बिना हिचक हस्ताक्षर
दुनियादारी की क्रम संख्या में अकसर गलती करता था
'क' से सपना और 'र' से पेशाब पढ़ाता था
ऐसे सिरफिरे लेकिन सभ्य नागरिक उनके अपने समय मे ही पागल करार कर दिये जाते हैं
तब एक ईमानदार लेकिन सिरफिरा आदमी देश की जनसंख्या रजिस्टर में कम हो जाता है