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सिलसिला / सरोज परमार
Kavita Kosh से
मेरे और तुम्हारे मिलन का सिलसिला
यहीं तो खत्म नहीं होगा
हर प्रलय के बाद हम
उगेंगे मनु और श्रद्धा की तरह
फिर सिरजेंगे संस्कृतिओं के अंडे
जिनसे निकलेंगे सभ्यताओं के चूज़े
जो गाएँगे विरह मिलन के गीत
जो चहकेंगे,महकेंगे फिर बहकेंगे
फिर ईड़ा का तर्कजाल घेरेगा बाहों में
फिर टुच्चापन झलकेगा
मछलियों में आदम की
फिर देखेगी श्रद्धा छले जाते विश्वास
होगी कुछ क्षण बदहवास
फिर जगेगा बल,आत्मविश्वास
फिर गाएगा कोई 'प्रसाद'
"नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में
पीयूष स्रोत-सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में।"