सुगंध-वृक्ष / नंद चतुर्वेदी
वहाँ उस गली के मोड़ पर
एक वृक्ष था सुगंध का
कभी-कभी जब बिजली चली जाती
पूरे शहर की, अमूमन मैं ठिठककर खड़ा रहता
जिधर था हमारा घर
रूक्मणी उस वृक्ष के पास जाती
पूछती उसका नाम, वंश, कुल, गोत्र, शील
पूछती हमारे घर चलोगे
वृक्ष कहता ‘ले चलो भुआ’
हवा वहीं बाँध देती अपना घोड़ा
दिन वहीं रूककर बादलों से बातें करता
थोड़े दिन बाद वह घर बिक गया
सुगंध का वृक्ष भी
वे लोग चले गये
नये लोगों के लिए
ऊँची छत-पर-छत
मंजिल-पर-मंजिल
हवा अपना घोड़ा खोल कर ले गयी
बादल रूठकर चले गये
काली छायाओं के वक्राकार चक्र घूमने लगे
देखते-देखते सुगंध का वृक्ष मुरझा गया
अब निपट अंधेरे में, जब बिजली चली जाती है
इस गली के मोड पर
छोटे-छोटे असंख्य फूलों वाले वृक्ष के लिए
मैं वहीं लौट आता हूँ रास्ता पूछने
रूक्मणी फोन पर बात करती है प्रायः
कभी-कभी जब पोस्ट कार्ड लिखती है
पूछती है अब भी हरा है क्या, दादा !
वह गली के मोड़ का सुगंध वृक्ष।