भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुनहरी सुबह / मनोज जैन 'मधुर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनहरी सुनहरी,
सुबह हो,
रही है।


कहीं शंख ध्वनियाँ,
कहीं पर ,
अज़ानें।
चली शीश श्रद्धा,
चरण में,
झुकाने ।
प्रभा तारकों
की स्वतःखो
रही है।


सुनहरी सुनहरी,
सुबह हो,
रही है।


प्रभाती सुनाते,
फिरें दल,
खगों के।
चतुर्दिक सुगंधित,
हवाओं,
के झोंके।
नई आस मन में,
उषा बो,
रही है।


सुनहरी सुनहरी,
सुबह हो,
रही है।


ऋचा कर्म की ,
कोकिला ,
बाँचती है।
लहकती फसल,
खेत में ,
नाचती है ।
कली ओस,
बूंदों से मुँह धो ,
रही है।


सुनहरी सुनहरी,
सुबह हो ,
रही है।