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सुनो नदी / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
सुनो नदी, तुम
वहीं कहीं पर
बहना
देखो तुम
कितनी सुंदर लगतीं
पिघल अभी भट्टी से
रजत रेख-सी चलतीं
सोचो, कितनी
आकर्षक हो
टेड़ी-मेढ़ी, ज्यों पर्वत पे
पगडंडी
यदि मैं तुम तक आई
तो शायद सकुचाऊँगी
संशय होगा,
आते जातों को,
पूछेंगे वे
अपना रिश्ता
यदि तुम मुझ तक आईं
तो जाने
क्या-क्या लाओगी-
महानगर की कीचड़
गये समय का
घाव पुराना
पर सच,
मैं तुम पर रीझी,
तुम मुझ पर
रीझी रहना
सुनो नदी,
नहीं आना
वहीं कहीं पर
बहना