सुनो प्रिया / मुकेश चन्द्र पाण्डेय
मुझे तुम्हारी याद आती है
और अचानक बरसों से खाली खंडहर हो चुके
मेरे घर के दरवाज़े से खुद-ब-खुद टूट जाता है ताला।
तुम्हारी छवि किसी सुन्दर चलचित्र सी
गुज़रती रहती है मेरी आँखों के समान्तर
जिस तरह परली तरफ के
पहाड़ के निचे सड़क पर से गुज़रते हैं सूक्ष्म वाहन।
मैं तुम्हारे प्रति हर क्षण संशय में रहता हूँ
और घबराहट में एकाएक पुकार उठता हूँ तुम्हारा नाम
जिस तरह सूर्यास्त होने से पूर्व ही
पुकार उठती है गौशाला मेरी गाय बकरियां।
मैं अनंत उम्मीद से भरा हूँ
जिस प्रकार मेरे घर के ठीक ऊपर दूर जंगल में
खड़ा सबसे ऊँचा देवदार ताकता रहता है छोटे से बल्ब की रौशनी !
सुनो प्रिया !
मुझे मेरे जीवन से बहुत अधिक अपेक्षाएं नहीं हैं!
मैं अपने गावं में किसी अकेली पहाड़ी पर
घंटों तुम्हें सोचता हुआ मुस्कुराना चाहता हूँ...
बस इतना हो,
मैं उस दिव्य शांति में ख़ाली साँसों के
ख़लल नहीं फूंकना चाहता
मैं उस मुरली से झरते मधुर सुरों में तुम्हारा नाम सुनना चाहता हूँ..!!