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सुबह से पहले आयी कली शाम / सांवर दइया
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सुबह से पहले आयी कली शाम।
यह तबाही बताओ लिखें किसके नाम?
जिधर से गुजर रहे उजड़ रही बस्तियां,
वे कह रहे- करने आये फैजे-आम!
जिनकी निगाहे-करम से मिटते वजूद,
ऐसे फरिश्तों को तो दूर से सलाम!
पेशे-नज़र आज तरक्की के ढंग नये,
हो रहे अंधेरे भी रोशनी के नाम!
देखे आपके निजाम में दौर ऐसे,
भूल गये हम थे कभी किसी के गुलाम!