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सुरासर / अमरेन्द्र
Kavita Kosh से
जबसे खुली कलाली गाँव में, गाँव का भाव बढ़ा है
छुटभैये से बड़भैये तक यहाँ टहलने आते
लौटे, तो जी भर पगुराते-गाते और रँभाते
जैसा सत्ता का चढ़ता है; वैसा नशा चढ़ा है ।
मध्यम मुँह पर महुआ शोभे, ठनठन मुँह पर ठर्रा
अब तो चर्चा इसी बात की, रम अच्छा या ह्निसकी
कथा-कहानी खुली हुई है, अब तो जिसकी-तिसकी
अमराई से कोयल भागी, बैठ गया है कर्रा ।
बसमतिया, रमचेलिया का अब जी करता है धकधक
कल तक तो रमचेलवा-खखरी लुक-छिप कर आते थे
आँखें मिल जातीं, तो थोड़ा भय से गड़ जाते थे
अब तो चैपालों से लेकर घर तक मुँह हैं भकभक ।
बटुए, गेठी, ठाठों के रुपये को गटक कलाली,
बस्ती भर के लोगों पर है बनी हुई जय काली ।