भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सृष्टि का अनन्त विस्तार / सतीश छींपा
Kavita Kosh से
तुम पूजा हो
मुझ नास्तिक के लिए
तुम्हारा पर्याय कोई ईश्वर नहीं
पर एक द्वार
उस सृष्टि का
जहाँ सृजित होता प्रेम
रहता अटल जीवन
युग-युगान्तर
एक हृदय से दूसरे में
दूसरे से तीसरे
तीसरे से चौथे
चलता अविराम
सृष्टि का अनन्त विस्तार
अटक जाता
तुम्हारे चेहरे
नाक को चूमती नथ में।