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सोच-समझ अनुभव के जाये / राजा अवस्थी
Kavita Kosh से
वाल्मीकि की प्रथा निभाई
हमसे नहीं गई.
जप-जप उल्टा नाम कहाँ तक
ब्रह्म समान बनें;
सोच-समझ अनुभव के जाए
तीर-कमान तनें;
रामायण की सीता गाई
हमसे नहीं गई.
दुनियादारी बाहर यारी
के झण्डे बाँधे;
भीतर-भीतर शातिर चालें
चलते दम साधे;
उनकी गठरी और उठाई
हमसे नहीं गई.
गाँव की गलियों में अब
बारूद पनपता है;
अंधी जागृति वाला
अंधा नाग सकता है;
दौड़ भयंकर यह रुकवाई
हमसे नहीं गई.
चम्पा भी अब चीन्ह रही है
किस्मत के काले अक्षर;
पूछ रही है भाग हमारे
किसने डाले ये अक्षर;
उत्तर वाली पंक्ति पढ़ाई
हमसे नहीं गई.
कब तक और कबीर बने
घर फूँकेंगे अपना;
मीरा भी अब भूल चुकी हैं
बैरागी सपना;
प्रेम-बेलि अब और उगाई
हमसे नहीं गई