सोच की चट्टान पर बैठी रही
जाल मखमल का वहीं बुनती रही।
पत्थरों में थे मिले कल देवता
आज बुत मंदिर के मैं छलती रही।
कहने के काबिल न थी उसकी जुबां
ख़ामोशी की गूँज मैं सुनती रही।
हार मानी थी न कल तक, आज क्यों
हौसलों के सामने झुकती रही?
क्या बहारों से है मेरा वास्ता
मैं खिजाओं में सदा पलती रही।
जिसने तूफाँ से बचाया था मुझे
सामने उसके सदा झुकती रही।