स्कूल का री-यूनियन / विवेक चतुर्वेदी
वो सब लौटकर
अपने शहर आए, अपने स्कूल।
आए... फिर से बस गए मोहल्लों में
वो सब आए पोंछने
अपनी यादों की
सिलेट में जमी धूल
उनमें से एक लड़की
अपने पुराने घर पहुँची
जहाँ अब ध्वज की तरह
नहीं लहरा रहा था
उस के पिता का नाम
और कांक्रीट से बदल गया था
घर का नक्श
पर नहीं बदली थी अभी
मिट्टी के आँगन की तासीर
आँगन में चलते लड़की
सहसा रूक गई उस जगह
जहाँ बहुत बरस पहले
दफनाई गई थी
उसकी पालतु बिल्ली
उसे बरबस याद आए वो आँसू
जो ठंड की एक सुबह
बिल्ली को मरा देख निकले थे
उसने उन आँसुओं का जल किया
और सूखती तुलसी पर ढार दिया
उनमें से एक लड़का
सड़क पर पुरानी साइकिल ढूँढता रहा
जिसकी चेन वो चढाता था
वो साइकिल उसके बसंत की थी
उसे याद आया
चेन चढाकर हाथों में ग्रीस लगाए
वो आँखो से ही अच्छा... कहता था
और बिना कुछ कहे ही
उसका बसंत
बहुत दूर चला जाता था
उसने दूर जाते बसंत को याद किया
और सड़क पार करते
छोटे बच्चों के हाथ थाम लिये
वो सब आए और
उन्होंने चौक कर देखीं अट्टालिकाएँ
जो घरों की जगह
उग आँई थीं
उन्होंने शहर से गुजरती नदी को
सूखते देखा और उफ कहा
उन्होंने एक पुराना बरगद
अब भी हरा देखा और खुश हुए
उन्हें पुराना देव प्रतिमाओं को
देखकर विस्मय हुआ
कि बस इनके चेहरे हैं जो नहीं बदले
जिनके घरौंदे बचे थे अब भी
उनने पुरानी खिड़कियाँ और छज्जे देखे
उनको... किसी का इंतजार याद आया
उनकी आँख की कोरें भीग आईं
पर वो मुस्कुराऐ..
वो सब अपने स्कूल भी गए
और बूढ़े हो चले अपने
उस्तादों की झुर्रियों को छुआ
मर चुके चौकीदार को पूछा
और उसकी बेवा को इनाम बख्शा
वो सब चौराहों पर गए
भले बदलीं हों पर
उनने सब गलियाँ पहचानीं
वो गाते रहे,वो हँसे, वो रोए भी
उन्होंने बचपन का शहर देखा
उन्होंने फिर से आसमान में तारे देखे
और फिर
इतने सालों तक ओढ़े
नाम और पहचान को
मँहगे सूटकेसों में बंद किया
बेतरह... नंगे पैर धूल के मैदानों में भागे
अचानक उन्हें मालूम हुआ कि
आदमी पेड़ है
अपनी... जड़ों में रहता है।।