स्त्री वेद पढ़ती है
उसे मंच से उतार देता है
धर्म का ठेकेदार
कहता है—
जाएगी वह नरक के द्वार
यह कैसा वेद है
जिसे पढ़ नहीं सकती स्त्री
जिस वेद को रचा था
स्त्रियों ने भी
जो रचती है
मानव समुदाय को
उसके लिए कैसी वर्जना है
या साज़िश है
युग-युग से धर्म की दुकान
चलाने वालों की साज़िश है
बनी रहे स्त्री बांदी
जाहिल और उपेक्षिता
डूबी रहे अन्धविश्वासों
व्रत-उपवासों में
उतारती रहे पति परमेश्वर
की आरती और
ख़ून चूसते रहे सब उसका
अरुंधतियों को नहीं
रोक सकेंगे निश्चलानंद
वह वेद भी पढ़ेगी
और रचेगी
नया वेद ।