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स्त्री समर्पण / धीरेन्द्र अस्थाना

शायद
तुम भूल चुके हो,
अपना प्रथम प्रणय निवेदन!

मेरी
पायल की झनक से,
तीव्र हो जाता था स्पंदन!

अब मेरा
कुछ भी कहना
लगता है एक कांटे की चुभन!

जानती हूँ,
नहीं तृप्त करता
तुम्हारी सोंच, मेरा यौवन!

अनभिज्ञ
भी नहीं हूँ मैं,
चिर परिचित है यह मनु-मन!

बस क्षोभ
इतना भर है प्रिये!
क्यों व्यर्थ होता स्त्री समर्पण!!