स्थीर –1 / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी
कहीं भी नहीं पहुँच पाता है
खड़ा आदमी
आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा
केवल समय ही नहीं
पैरों का गतिमय संगीत भी है
बन्द कर के विवेक के सीमान्त द्वार
प्रत्येक दिन
जाना काम पर और लौटना
बात करना और पीना
पढ़ना अख़बार और प्रकट करना सस्ती प्रतिक्रिया
करना लाचारीपूर्वक नेताओं की निन्दा
ख़बरें सुनना और कोसना देश को
मुझे लगता है
इन किसी भी बातों में नहीं सुनाई देती
रफ्तार की लय
खड़ा आदमी
केवल तमाशा देखता है
खाता है, शौच करता है, टेलीविज़न देखता है
और करता है अन्य–अन्य बेतुके काम
लेकिन तनिक भी एक क़दम आगे नहीं चलता
पालता नहीं दुरन्त उजाला का सपना
संजोता नहीं अपने अन्दर दुस्साहसी मिथक का जिगर
बजती नहीं उसके मष्तिस्क में कभी
समय की नयी घण्टी
कहता नहीं कि
‘कदाचित माँगा अगर वक़्त ने
लगा दूँगा देश के माथे पर
अपने ही ख़ून का टीका’
बल्कि प्रलाप और प्रदक्षिणा करते हुए
अमूक ईश्वरों के दरबाजे पर खडा
माँगता है केवल अपनी ही कला हीन जि़न्दगी के नाम पर
अभेद्य सुरक्षा कवच
लोगों को
ऐसे खड़े होने में
क्यों नहीं होती है पीड़ा?
क्यो नहीं होती है बेचैनी?
देख रही हूँ
इस समय मेरे देश में
खड़े-खड़े लोगों की है
ठेलम-ठेल भीड़