स्मृतियाँ- 2 / विजया सती
जिंदगी को गणित के सवालों-सा हल करना
मुझे कभी नहीं आया
कभी भाया ही नहीं जमा-घटा-गुणा-भाग
बचपन से ही
कविता के आसपास रहती आई जिंदगी मेरी
रसोई में बर्तनों की खटपट के बीच माँ गुनगुनाती -
गूँजते थे कानों में वे घुँघरू शब्द
जिन्हें पगों में बाँध नाचती थी मीरा!
बाहर खुले बरामदे में बैठ हम सुनते
पिता का सधा कंठस्वर
सुबह के उजाले को साथ लाता -
नागेन्द्र हाराय त्रिलोचनाय अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं
फिर कस्तूरबा आश्रम की दिनचर्या में भी तो तय था
सुबह शाम की प्रार्थना सभा का समय
जब आश्रम भजनावली से चुने भजनों का समवेत स्वर
धीमे से ऊँचा उठाती थी मैं भी
छात्रावास की सहेलियों के साथ -
वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पीर पराई जाने रे
अब इस तरह के सवाल क्यों
जिनका कोई हासिल न हो?
मेरे अंत: को निर्मल बना रहे हैं जब तक रहीम रसखान भर्तृहरि
कबीर का अक्खड़ दोहा बल दे जाता है मुझे
जब तक
अज्ञेय का मौन और भवानी के कमल के फूल झरते हैं आसपास
शून्य हो जाने दूँ जीवन का उल्लास
व्यर्थ की जोड़ तोड़ करते!?