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स्वतन्त्रता की रजत-जयन्ती: 1972 / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'

(1)
आई है
स्वतन्त्रता की रजत जयन्ती-
श्रीमती!
मेरे डिपार्टमेंट के
पीओन के लिए
उड़द की दाल जैसी कीमती!

(2)
पिंजरे का द्वार तो खुला है-
दिखाई भी पड़ रहा है नीला आसमान;
पर, अंगों में, डनों में, गहरा दुखाव भी है-
पीड़ा से कंठ है कड़वे नीम के समान!
कब उड़ पाऊँगा रेशमी शफाफ हवाओं में-
सुर्मई घटाओं के बीच
भरता हुआ तान!
हे भगवान!

(3)
घटा घिरी हो,
हो रही हो बारिश,
लटका हो इन्द्र-धनुष भी,
और फैली भी हो रुँआसी-सी धूप!
कुछ ऐसा सा ही हो रहाह ै-
आज़ादी की रजत-जयंती पर-
आज मेरे मन का स्वरूप!

(4)
शादी की अँगूठी बनती है-
जिसके बीच में
सोने के चौखटे में, बारीक गोल कमानी पर
एक गोल या चौकोर
नीलम या पुखराज का नग जड़ा रहता है,
जो ऊपर-नीचे घुमाया जा सकता है,
तबीयत चाहे जैसे-
जब चाहो घुमा लो-
उस पर इनेमल के अक्षरों में रहता है-
एक ओर प्यारी का नाम, एक ओर प्यारे का नाम!
अपने देश ने भी एक अँगूठी पहन रखी है-
सोने के रोलिंग पल्लू पर दोनों ओर बारीक काम है;
एक ओर-ऊँचे भवन, कारें, रोशनियाँ, डिनर, कैबरे-
जगमग, जगमग, जगमग...
दूसरी ओर लाठी, गोली, अश्रु-गैस-
कुत्ते के कान से मुड़े राशन-कार्ड;
और थके पग-डगमग, डगमग, डगमग!
अपने प्यारे देश ने भी-
रोरिररलंग नामों वाली सोने की एक अँगूठी पहन रखी है!