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हमको यह सब कब करना था / राघवेन्द्र शुक्ल

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हमको यह सब कब करना था!

हमने अपने हाथ गढ़े थे,
हमने अपनी राह रची थी।
हमने तब भी दीप जलाए
जब दो क्षण की रात बची थी।

जुगनू की पदवी मिलते ही
पंख लगाकर आसमान के
जगमग जग में कब बरना था।

जब हम थे शपथाग्नि किनारे,
तुम भी तो थे हाथ पसारे
लिए शपथ की आंच खून में
रक्तिम प्रण नयनों में धारे।

युग के गांधी की लट्ठों को
सिस्टम की पाटों में पिस-पिस
इक्षु-दंड सा कब गरना था।

चंद मशालों की आंचों में
हमको रण का गुर पढ़ना था।
बची-खुची आवाजों से ही
इंकलाब का सुर गढ़ना था।

चट्टानी नीवों पर निर्मित,
घिस-घिस, पिस-पिस, हमको आखिर,
रेत-महल सा कब झरना था।