भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमसफ़र / सैयद शहरोज़ क़मर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इमरान के विवाह पर प्रकाशित संकलित सेहरों की पुस्तिका 'हमसफ़र' हेतु लिखी गई

सिमटता आसमान
बिल्कुल खुला-खुला-सा
अब न ही सिकुड़ेगी धरती
सच मानो
जीवन की अब शुरूआत हुई है
सरदी की सुबह
क़तरे को जलते
और मई की दोपहरी में
गोद में सूर्य लिए
किरणों की फुहारों को
सिवाय तुम्हारे कौन महसूस
कर सकेगा मेरे मित्र !
'इन्हें मत छोड़ो
क्लोरोफ़िल की शाखाओं में
दौड़ने दो
कोंपल=दर-कोंपल'
जगने दो नया अहसास
उड़ने दो हमसफ़र को अन्तरिक्ष के पार
ऐ ख़ुदा ! फ़िज़ा में बिखरी
ख़ुशबुओं को 'करने दो तय चार
फेफड़ों की यात्रा'
रुह समेत घुलने दो इन्हें
रक्त में
पल-पल को होने दो
स्वर्णिम अक्शरों में क़ैद
चमकने दो इन्हें साहित्यिक आकाश में
पहाड़ों की बैसाखी से
लुका-छिपी मत खेलो
चश्मदीद गवाह तुम भी हो
सरज बाबा
सात्विक आलम्ब के इस मधुरतम क्षण में

विवेकहीन हैं अक्षर
शब्दकोश से इतर
सम्वेदना में लिपटे
बहुतेरे शब्द
हलक़ में फड़फड़ाते हैं
कैसे दूँ मुबारकबाद तुम्हें
ओ मेरे स्नेहिल इमरान !
सिवाय माँ की इस दुआ के
कुछ भी याद नहीं आता
'जुग-जुग जीओ मेरे...'

25.10.1996