हमारे समय के बच्चे / संध्या नवोदिता
हमारे समय के बच्चे
मखमल में नहीं पाले जाते
उनकी विश्रामशाला होती है
कंक्रीट की किसी सड़क किनारे
या मिट्टी के नरम बिछौने
अपने आप ही बड़े हो जाते हैं हमारे बच्चे
बहुत बेशर्म होते है हमारे नवजात
वे पैदा ही लोहे के होते हैं
धूप, ठण्ड या बरसात
सब बेअसर होते हैं उन पर
बम्बों में नहाते हुए सुड़क जाते हैं वे
ढेर सारा गंदला पानी
हवा कितनी ही विषैली क्यों न हो
वे जी लेते हैं किसी आक्सीजन मास्क के बगैर
धूल की सौगात
उनके सँवलाए चेहरों पर फिसलती है
आँखें भले ही मासूम हों
पर दिखती है तो कोरों में जमी कीचड़ ही
उनका रोना या मचलना
विचलित नहीं करता किसी को
हालाँकि
हवाएँ बिखर जाती हैं
सूरज सुनहरा हो उठता है
मिट्टी और ज्यादा गंधा जाती है
उनके आँसुओं से लिपटकर
फ़सलें जवान होती हैं बेताबी से
कारख़ानों की मशीनों का रुदन
और तेज़ हो जाता है
दरअसल
बच्चे हमारे समय के
कोई नाज़ुक गुलाब की कलियाँ नहीं होते
बड़े शातिर होते हैं हमारे दुधमुँहे
भूख से कुलबुलाती अँतड़ियों को समेटे
टुकुर-टुकुर देखते हैं फटी आँखों से
दूध भीगी रोटी के निवालों को
जो किसी जैकी, टॉमी या टाइगर को
परोसे जाते है
सुन्दर पॉट में
मान-मनौवल के साथ
शायद अच्छा न लगे आपको
जब पता चले
कि बच्चे मिमियाना छोड़ चुके हैं
उनकी कोमल मुस्कुराहट
खूँखार ठहाकों में
तब्दील होने लगे
अच्छा तो यह भी नहीं
कि बुरी से बुरी बात पर भी
उनकी आँखों की मासूमियत में
खून का एक कतरा भी न उतरे
अपनी पीली आँखों में वे
सिवाय डर के कुछ और न पचा पाएँ
बुरा तो यह भी है
कि बच्चे हमारे समय के
गवाँ बैठें अपना बचपना
उनकी उम्र
मुस्कुराहटों से नहीं
उनके हाथों में पल रहे ज़ख़्मों की दरारों से गिनी जाए
उनकी आँखों में
सपनों की जगह वक़्त के काँटे उग आएँ
बच्चे
कहाँ रह गए हैं अब बच्चे
उनकी उम्र तो युगों में है
सदियाँ गुज़र गई हैं
उन्हें,
अपनी नन्हीं उँगलियों से वक़्त का
ख़ूबसूरत गलीचा बुनते ।