हमारे हिस्से की / योगेंद्र कृष्णा
याद है
दृश्य अदृश्य
हर उस शख्स का चेहरा
मुझे अच्छी तरह याद है
जिसने
इस पृथ्वी पर
निरंतर
दूसरों के हिस्से की जंग
सिर्फ अपने पक्ष में जीती है
मुझे हर उस शख्स का चेहरा
अच्छी तरह याद है
जिसने सुरक्षित कर रखे है
अपने पास
हमारी जंग के आधे-अधूरे
हथियारों के सर्वाधिकार
हां
मुझे याद है
हर जंग में
हमारे हिस्से की
रोटी से निकले...
नहीं
हम अपनी जंग
उनके हथियारों से
नहीं लड़ सकते
उन हथियारों में
आज भी ताजा हैं...
हमारे हिस्से की
रोटी से निकले
लहू के निशान
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मील के पत्थर
तुम्हारी सरहदें नहीं हैं
आकाश पहाड़ और ये सागर
तुम्हारी अनवरत यात्रा में
महज दृष्टांत हैं
अंत नहीं हैं
पड़ाव हैं
मील के पत्थर हैं
संगमील हैं जिंदगी के
तुम्हें तो तलाश है
नई सरहदों की
जहां तुम्हारे आदर्शों पर
बारूदी सुरंगों के
कड़े पहरे हैं
तुम उन्हीं रास्तों पर
आगे बढ़ते हुए
अपने पीछे
लहूलुहान
एक रास्ता छोड़ जाते हो
बारूदों पर
चलने की बनिस्बत
कितना सहज है
तुम्हारे ताजा लहू के निशान पर
पांव रखना
बढ़ना उस रास्ते पर
और
तुम्हारे ही आदर्शों में
अपने लिए पड़ाव ढूंढ़ लेना
r
अपना चेहरा
सड़कों के हाशिये पर
भागती-हांफती भीड़ में
पल भर के लिए
एक चेहरा
ऐसा भी दिखा था
जो बहुत अपना-सा लगा था
बदहवास-सी भागती
जिंदगी की भीड़ में
एक अजनबी चेहरा
ऐसा भी दिखा था
जो कुछ सपना-सा लगा था
वर्षों बाद
जब समय की करबटों ने
बदल दिए
सड़कों के हाशिये
जब बदल गए
सड़क और आसमान के फासले
और चेहरों की सलवटों ने
सुविधा से गढ़ लिए
रिश्तों के नए प्रतिमान
तब
आज मुद्दतों बाद
पता चला
वह चेहरा
वह सपना
दोनों अपना ही था