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हम-शाद / शाज़ तमकनत

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वो इक शख़्स जिस की शबाहत से मुझ को
बहुत ख़्वार ओ शर्मिंदा होना पड़ा था
क़बा रूह की मलगजी हो गई थी
कई बार दामन को धोना पड़ा था
वो मुझ जैसी आँखें जबीं होंट अबरू
कि बाक़ी न था कुछ भी फ़र्क़-ए-मन-ओ-तू
वही चाल आवाज़ क़द रंग मद्धम
वही तर्ज़-ए-गुफ़्तार ठहराओ कम कम
ख़ुदा जाने क्या क्या मशाग़िल थे उसे के
मिरे पास लोग आए आ आ के लौटे
कई मुझ से उलझे कई मुझ से झगड़े
मैं रोता रहा बे-गुनाही का रोना
मिरे जुर्म पर लोग थे क़हक़हा-ज़न
न काम आया अपनी तबाही का रोना
वो ज़ुल्मत में छुप छुप के दिन काटता था
मैं दिन के उजाले में मारा गया था
सुना रात वो मर गया क्या ग़ज़ब है
उसे दफ़्न कर आए लोगों को देखो
मैं कम-बख़्त नज़रों से ओझल ही कब था
ये क्या कर दिया हाए लोगों को देखो