Last modified on 2 जून 2019, at 18:58

हम औरतें हैं मुखौटे नहीं / अनुपम सिंह

वह अपनी भट्ठियों में मुखौटे तैयार करता है
उन पर लेबुल लगाकर, सूखने के लिए
लग्गियों के सहारे टाँग देता है
सूखने के बाद उनको अनेक रासायनिक क्रियाओं से गुज़ारता है
कभी सबसे तेज़ तापमान पर रखता है
तो कभी सबसे कम
ऐसा लगातार करते रहने से
उनमे अप्रत्याशित चमक आ जाती है ।

विस्फोटक हथियारों से लैस उनके सिपाही घर -घर घूम रहे हैं
कभी दृश्य तो कभी अदृश्य
घरों से उनको घसीटते हुए
अपनी प्रयोगशालाओ कीओर ले जा रहे हैं
वे चीख़ रही हैं, पेट के बल चिल्ला रही हैं
फिर भी वे ले जाई जा रही हैं ।

उनके चेहरों का नाप लेते समय
ख़ुश हैं वे
आपस मे कह रहे हैं कि
अच्छा हुआ इनका दिमाग नहीं बढ़ा

इनके चेहरे, लम्बे-गोल, छोटे-बड़े हैं
लेकिन वे चाह रहे हैं कि सभी चेहरे एक जैसे हों
एक साथ मुस्कुराएँ
और सिर्फ़ मुस्कुराएँ
तो उन्होने अपनी धारदार आरी से
उन चेहरों को सुडौल
एक आकार का बनाया

अब मुखौटों को उन औरतों के चेहरों पर
ठोंक रहे हैं वे
वे चिल्ला रही हैं
हम औरते हैंं
सिर्फ़ मुखौटे नहीं

वह ठोंके ही जा रहे हैं
ठक-ठक लगातार
और अब हम सुडौल चेहरों वाली औरतें
उनकी भट्ठियों से निकली
प्रयोगशालाओं में शोधित
आकृतियाँ हैं ।