हम जहाँ मिले / आलोक श्रीवास्तव-२
1.
इतिहास का यह कौन-सा मुक़ाम था
जहां हम मिले
यह कौन-सी धूसर,
टिमटिमाती काल की गोधूलि थी
जिसमें फीके पड़ रहे थे आसमान के रंग
यह कौन तुम थीं ?
जिसे मैं बार-बार पहचानता
बार-बार भूलता था
अजीब मंज़र था
देह और मन के बीच के योजनों अंधकार में
जाज्वलु नक्षत्रों-सी छवियां उभरती थीं
और डूब जाती थीं
सभ्यता के खंडहर थे वहां
आप्त ग्रंथों के सूत्रों में उलझता सत्य था
कल्पनाओं के रंगों में डूबता
आकाश का एक अकेला तारा था
देह से मन होतीं
मन से देह होतीं
तुम थीं
हम जहां मिले वहां सिर्फ़ एक जंगल था मायावी
चांदनी के उजास में
तुम जहां खड़ी थीं
चेतना के गहरे स्तरों पर मिलने से शापित हम
इच्छाओं में तलाशते थे एक-दूसरे को
और जीवन डूबता जाता था
अनंत में फिर न लौटने को...
2.
इतिहास का यह कैसा मुकाम है
स्मृतियों तक से मिटता जा रहा है
तुम्हारा चेहरा
तुम जो एक स्वप्न थीं
यह कैसा यथार्थ बन गई हो
जिससे टकरा कर टूट रहे हैं मेरे विचार
एक समुद्र के विलीन होने का दृश्य है यह
लहरों की उस भव्य कल्पना में
तेजोदीप्त तुम्हारा माथा
अब भी झलक उठता है
पर समय की ये कैसी गुंजलकें हैं
जिनमें उलझता गया है
तुम्हें चाहने का स्वप्न
यह किन खंडहरों के बीच खड़ा हूं मैं ?
ये कैसी हवाएं हैं ?
यह कैसी उदास आवाज है
किन सदियों की बाड़ें लांघती यहां तक आती हुई ?
क्या उठोगी प्रिया
इतिहास के इस मायावी रहस्यलोक से ?
क्या फिर से
कोई सपना दोगी ?
3.
एक युग ख़त्म हो रहा है
ध्वस्त दीवारें गिर रही हैं
धूल-ही-धूल है
दर्द, आंसू, व्यथा ...
यह प्रकृति का नहीं
समय का नहीं
सभ्यता का तुमुल है
तुम यह किस मोड़ पर मिलीं ?
और यह किस रूप में?
मैं तुमसे क्या कहूं?
प्रेम के कौन से गीत
उम्मीद के कौन-से सपने ?
यह कैसी गोधूलि है ?
मिथकों की परिधियां लांघता
तुम्हारा वजूद
और यह इतिहास का
बंजर उजाड़
तुम्हें देने के लिए मेरे पास कोई नाम नहीं
तुम्हारी वेणी में सजाने के लिए
कोई फूल नहीं
ये अजीबोग़रीब रास्ते हैं
तुम्हारे घर तक जाने वाला कोई रास्ता नहीं
इतिहास की इस संधि-बेला में
नष्ट हो रहा जर्जर-पुरातन
ख़त्म हो रहा है एक युग
धूल-ही-धूल है रास्तों पर
दूर जनांतिक में गूंजती
ये किन सौदागरों की टापें हैं ?
यह कौन तुम हो
यह कैसी छवि है
गांव-देसों के अनाम रास्तों पर खोती हुई...