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हम पाहुने / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
Kavita Kosh से
57
भोर में भानु
पुर्जे -पुर्जे करता,
लिखी जो पातीं।
58
तुम जोड़ना
टूटे हुए आखर
पढ़ो सन्देसा।
59
चीख थी मेरी
पहचान न पाया
गूँजा था वन।
60
लिखो आग से
अनुरागी आखर
खुली हथेली।
61
था दर्द किसी
भीगे नैन बावरे
दुत्कार मिली।
62
भरी भीड़ है
रक्त-पिपासु दिखे,
भोले चेहरे।
63
बूँद टपकी
नभ या नयन से
किसने जाना !
64
दिन डूबा है
बन्द कर लो द्वार
बिदा दो अब !
65
हम पाहुने
कुछ दिन के ही थे
चलना होगा !
66
टूटे हैं रोज़
जुड़ने में निकली
पूरी ज़िन्दगी।