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हम हार नहीं रहे हैं / शिरीष कुमार मौर्य

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मैं इसे नारे की तरह नहीं लिखना चाहता
मैं इसे अहंकार की तरह नहीं बोल सकता
पर सबसे कहता हूँ बार-बार हम हार नहीं रहे हैं

अपने हार रहे हैं अपनापन हार रहा है
पराजय माथे पर घाव की तरह दिखती है ठीक हो जाएगी यह आशावाद है
पर इसमें कोई चीख़-पुकार नहीं है
एक हाहाकार है बाहर-भीतर जो सुनाई तो देता है कान नहीं फोड़ता

कुछ हो रहा है
कि मैं चालीस में क़दम रखते हुए फिर पोस्टर बना रहा हूँ
अन्धेरों की सुफ़ैद छाती पर कुछ सुर्ख़ लफ़्ज़ चिपका रहा हूँ

सड़कों के नीचे दबीं सड़कें मुझे देख रही हैं
मैं भी उन पर दिखना चाहता हूँ
सड़कें जो ऊपर बन गईं उन पर बहुत फिसलन है
वे पाँवों के लिए नहीं टायरों के लिए बनाई जा रही हैं
बाज़ार की सल्‍तनत में
कुछ लालबत्तियों
और कुछ हूटरों वाले कायरों के लिए चमकाई जा रही हैं

इधर मैं अपनी प्रिय धूल ढूँढ़ रहा हूँ
जो पहले चलते हुए बदन पर लग जाती थी
अब धुआँ है तरह-तरह की गाड़ियों के इंजनों से निकलता
जो एक राजनीति के तहत मुझे कुछ और काला कर जाता है
पर अब भी विचार एक रूमाल है मोटे कपड़े का
मैं चेहरा पोंछ सकता हूँ

अभी उलझन में हूँ पर कुछ तो लिख रहा हूँ जो चपटी समझ के लिए बिलकुल नहीं है
साथियों का भी एक अपना बहुत जाहिर घटाटोप है
कोई नहीं है
कोई कहीं है
नहीं वाला दिल्ली में अपना नहीं रख सकता है
कहीं वाला
केलंग, गौहाटी, जोधपुर, मिथिला, ग्वालियर, नकोदर और बैतूल में
अपना कहीं रच सकता है

मेरी पट्टी में प्रतिरोध अब भी एक भाषा है समूची समग्र
पर उसे खेत की तरह जोतना पड़ता है
यह धरती है
माँ है
पर माँ अगर दुबला जाए तो उसकी गोद में भी कुछ गड़ता है

पहले हमारी दुनिया के कुछ दिमाग़ सड़ते हैं
तब इस धरती पर कुछ सड़ता है

हम खार भले खा रहे हैं
पर हार नहीं रहे हैं न चुप रहना हारना है न चुपचाप मर जाना हारना है
जो मारने को समझते हैं जीतना वे हमें हारता समझते हैं
मगर इस चुप में आग से भरे अनगिन दिल जो धड़कते हैं
उन्हीं की एका का नग़मा यह धरती गाएगी

मनुष्यता के इस पहले और आखिरी द्वन्द्व से परे खड़े लोगो
संसार में सब कुछ जीत लेने लिप्साओं से भरी तुम्हारी प्रिय कविता और राजनीति का हार जाना
तय जानो

पन्ने भर-भर तुम्हारे अपने बनाए अकादमिक अभिलेखों के बाहर
हमें इसकी घृणित
एक याद भर आएगी ।