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हरिक उम्मीद छूटी जा रही है / रंजना वर्मा
Kavita Kosh से
हरिक उम्मीद छूटी जा रही है
तुम्हारी याद बेहद आ रही है
न सावन तीज कजरी अब सुहाते
फ़क़त बरसात हम को भा रही है
उनींदी रात हर बेचैन है अब
हवा तुम को यही समझा रही है
हुई अब रूह है बेहद अकेली
ये खुद से ही बहुत शरमा रही है
वही ही रागिनी ये बाँसुरी की
फ़िज़ा खामोश जो दुहरा रही है
भले ही लाख दुश्मन सामने हों
यकीं की ही बही गंगा रही है
यहां बहती हमेशा इश्क़ धारा
कभी राधा कभी मीरा रही है