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हरिगीता / अध्याय १६ / दीनानाथ भार्गव 'दिनेश'

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श्रीभगवान् बोले:
भय-हीनता, दम, सत्त्व की संशुद्धि, दृढ़ता ज्ञान की॥
तन-मन सरलता, यज्ञ, तप स्वाध्याय, सात्त्विक दान भी॥१॥

मृदुता, अहिंसा, सत्य करुणा, शान्ति, क्रोध-विहीनता॥
लज्जा, अचंचलता, अनिन्दा, त्याग तृष्णाहीनता॥२॥

धृति, तेज, पावनता, क्षमा, अद्रोह, मान-विहीनता॥
ये चिन्ह उनके पार्थ, जिनको प्राप्त दैवी-सम्पदा॥३॥

मद, मान, मिथ्याचार, क्रोध, कठोरता, अज्ञान भी॥
ये आसुरी सम्पत्ति में जन्मे हुए पाते सभी॥४॥

दे मोक्ष दैवी, बान्धती है आसुरी सम्पत्ति ये॥
मत शोक अर्जुन, कर हुआ तू दैव-संपद् को लिये॥५॥

दो जाति के है लोग, दैवी आसुरी संसार में॥
सुन आसुरी अब पार्थ, दैवी कह चुका विस्तार में॥६॥

क्या है प्रवृत्ति निवृत्ति जग में, जानते आसुर नहीं॥
आचार, सत्य विशुद्धता होती नहीं उनमें कहीं॥७॥

कहते असुर झूठा जगत्, बिन ईश बिन आधार है॥
केवल परस्पर योग से, बस भोग-हित संसार है॥८॥

इस दृष्टि को धर, मूढ़ नर, नष्टात्म, रत अपकार में॥
जग-नाश हित वे क्रूर-कर्मी जन्मते संसार में॥९॥

मद मान दम्भ-विलीन, काम अपूर का आश्रय लिए॥
वर्तें अशुचि नर मोह वश, होकर असत् आग्रह किए॥१०॥

उनमें मरण पर्यन्त चिन्ताएँ अनन्त सदा रहें॥
वे भोग-विषयों में लगे, आनन्द उस को ही कहें॥११॥

आशा कुबन्धन में बन्धे, धुन क्रोध एवं काम की॥
सुख-भोग हित अन्याय से इच्छा करें धन धाम की॥१२॥

यह पा लिया, अब वह मनोरथ सिद्ध कर लूंगा सभी॥
यह धन हुआ मेरा, मिलेगा और भी आगे अभी॥१३॥

यह शत्रु मैंने आज मारा, कल हनूंगा और भी॥
भोगी, सुखी, बलवान, ईश्वर, सिद्ध हूँ, मैं ही सभी॥१४॥

श्रीमान् और कुलीन मैं हूँ, कौन मुझसा और है॥
मख, दान, सुख भी मैं करूँगा, मूढ़ता-मोहित कहे॥१५॥

भूले अनेकों कल्पना में मोह-बन्धन बीच हैं॥
वे काम-भोगों में फँसे, पड़ते नरक में नीच हैं॥१६॥

धन, मान, मद में मस्त, ऐसे निज प्रशंसक अज्ञ हैं॥
वे दम्भ से विधिहीन करते नाम ही के यज्ञ हैं॥१७॥

बल, कामक्रोध, घमण्ड वश, निन्दा करें मद से तने॥
सब में व अपने में बसे मुझ देव के द्वेषी बने॥१८॥

जो हैं नराधम क्रूर द्वेषी लीन पापाचार में॥
उनको गिराता नित्य आसुर योनि में संसार में॥१९॥

वे जन्म-जन्म सदैव आसुर योनि ही पाते रहें॥
मुझको न पाकर अन्त में अति ही अधोगति को गहें॥२०॥

ये काम लालच क्रोध तीनों ही नरक के द्वार हैं॥
इस हेतु तीनों आत्म-नाशक, त्याज्य सर्व प्रकार हैं॥२१॥

इन नरक द्वारों से पुरुष जो मुक्त पार्थ, सदैव ही॥
शुभ आचरण निज हेतु करता, परमगति पाता वही॥२२॥

जो शास्त्र-विधि को छोड़, करता कर्म मनमाने सभी॥
वह सिद्धि, सुख अथवा परमगति को न पाता है कभी॥२३॥

इस हेतु कार्य-अकार्य-निर्णय मान शास्त्र-प्रमाण ही॥
करना कहा जो शास्त्र में है, जानकर वह, कर वही॥२४॥


सोलहवाँ अध्याय समाप्त हुआ॥१६॥