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हर चीज के भीतर एक / बरीस पास्तेरनाक

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हर चीज के भीतर तक
पहुँचना चाहता हूँ मैं।
पहुँचना चाहता हूँ उनके सारतत्‍व तक
काम में, राहों की खोज में
हृदय की उथल-पुथल में।

पहुँचना चाहता हूँ
बीते दिनों की सच्‍चाई तक,
उनके कारण और मूल तक,
उनके आधार और मर्म तक।

नियति ओर घटनाओं का
हर समय में पकड़े रखना चाहता हूँ सूत्र,
चाहता हूँ जीना, सोचना, अनुभव करना, प्रेम करना,
उद्घाटित करना नये-नये सत्‍यों को।

काश संभव होता
भले ही अंशत:
भावावेग के गुणों पर
मात्र आठ पंक्तियों में।

लिखना अराजकता, पाप, पलायन
और आखेट के बारे में,
आकस्मिक घटनाओं, अचंभों,
कुहनियों और हथेलियों के स्‍पर्श के बारे में।

मैं ढूँढ़ निकालता उनके नियम
और उनका उद्गम
और अुहराता रहता
उनके नामों के प्रथम अक्षर।

उद्यान की तरह मैं सजाता कविताएँ,
धमनियों के समस्‍त कंपन के साथ
उनके खिलते रहते मेपल लगातार
एक साथ, जी भरकर।

कविताओं में लाता गुलाबों के महक
और पुदीने का सत्‍त,
लाता चरागाहें, वलीक घास
और ठहाके गरजते बादलों के।

इसी तरह शोपां
अपनी रचना में
समेट लाये थे पार्क, उपवन और
समाधियों के आश्‍चर्य।

अर्जित गरिमा की यातना
और खुशी
तनी हुई प्रत्‍यंचा
सधे हुए धनुष की।