हवाई यात्रा : ऊँची उड़ान / अज्ञेय
यह ऊपर आकाश नहीं,
है रूपहीन आलोक मात्र। हम अचल-पंख तिरते जाते हैं भार-मुक्त।
नीचे यह ता जी धुनी रुई की उजली बादल-सेज बिछी है
स्वप्न-मसृण : या यहाँ हमीं अपना सपना है?
लेकिन उतरो :
इस झीनी चादर में है जो घुटन, भेद कर आओ।
दीखीं क्या वे दूर लकीरें-धुँधली छायाएँ-कुछ काली, कुछ चमकीली
मुग्धकारी कुछ, कुछ जहरीली?
होती मूत्र्त महानगरी है : संसृति के अवतंस मनुज की कृति वह
अविश्राम उद्यम ही कीर्तिपताका।
उतरो थोड़ा और :
घनी कुछ हो आने दो
रासायनिक धुन्ध के इस चीकट कम्बल की नयी घुटन को :
मानव का समूह-जीवन इस झिल्ली में ही पनप रहा है!
उतरो थोड़ा और : धरा पर
हाँ, वह देखा, लगते ही आघात ठोस धरती का
धमनी में भारी हो आया मानव-रक्त और कानों में
गूँजा सन्नाटा संसृति का!
उतरो थोड़ा और : साँस ले गहरी
अपने उडऩखटोले की खिड़की को खोलो और पैर रक्खो मिट्टी पर :
खड़ा मिलेगा वहाँ सामने तुम को
अनपेक्षित प्रतिरूप तुम्हारा
नर, जिस की अनझिप आँखों में नारायण की व्यथा भरी है!
लन्दन-पैरिस-विएना (विमान में), जून, 1955