भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हवा में महल / ओक्ताविओ पाज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कुछ दुपहरियों को अजब चीज़ें राह में
आती हैं छू भर जाने से जिनके कि उठती
है सिहरन, बदल जाता रंग आँखों का,
बदल जाती सहज मन:स्थिति। मेरी दाईं
तरफ, अभेद्य पदार्थ के विशाल भण्डार,
बाईं तरफ गर्दनें एक क्रम से । मैं पर्वत
पर चढ़ता हूं मैं उसी भय के साथ जो रहता
है दबोचे और सम्मोहित किए हुए सबको
बचपन से, जब तक कि किसी न किसी
दिन हम खड़े नहीं हो जाते, ऐन
उसके सामने । महल जो शिखर पर है
बना है वह बिजली की एक
कौंध से । पतला और सरल कुठार-सा,
सीधा और लपट-सा, वह बढ़ता है
सामने घाटी के, मानों उसे कर देगा
दो टुकड़े । महल एक ही काट का,
जैसे कि अखण्डनीय लावा । क्या वे
गाते हैं भीतर ? वे करते हैं प्रेम या
कत्ल ? हवा सिर पर हू-हू हा-हा
करती है और गडग़ड़ाहट कानें में
हो जाती स्थिर । घर जाने से पहले ।
फूल वह नन्हा-सा लेता तोड़, उगता
जो दरारों में, फूल वह काढ़ जिसे
किरणें तपा देतीं ।