भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हाइकु 177 / लक्ष्मीनारायण रंगा
Kavita Kosh से
जनमें मौत
जनम रै सागै ई
जुड़वां दोनूं
होणी तो हुसी
कीं करियां नीं टळै
खुलो खेल नीं
अगूणी दिस
लगायलै दिनूगै
सूरज टीकी