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हाय चील / जीवनानंद दास
Kavita Kosh से
उड़-उड़ कर बादलों से भरी हुई दोपहर में
चक्कर लगाती चील ! हाय चील सोने से पंखों की ।
रोओ मत, रोओ मत बिलख कर !
तुम्हारे बिलखने से आती हैं याद आँखें उसकी
छरहरे बेंत के पीले फल जैसी म्लान
परियों-सी पृथ्वी की राजकुमारी वह
चली ही गई है दूर...बहुत दूर...
लिए हुए अपनी सुन्दरता को !
वापस बुलाएँ मत, वापस बुलाएँ मत उसे ।
भूली हुई पीड़ा जगाएँ मत ।
(अच्छा लगता है किसे,
फिर से कुरेदना उसे)
हाय चील ! सुनहरे पंखों वाली चील । उड़-उड़ कर
चक्कर लगाती हुई गोल
रोओ मत रोओ मत
बादलों से भरी हुई दोपहर में
नदी के किनारे यों ।
(यह कविता ’महापृथिवी’ संग्रह से)