नींद के ढलान पर भौचक्क सा में
न जाने क्यों सोचता हूँ तुम्हे
एक तुम हो, की
कब से आई भी नही,
ना हकीकत में,न स्वप्न्न में
कभी सोचता हूँ कि
पत्थर से उम्मीदे करे भी तो कब तक
लेकिन फिर ये कौन हैं, जो भीतर बैठा
शोर मचाता बुलाता
आज भी तुम्हारी राह तकता थकता नही,
अक्सर सोचता हूँ कि
तँग गलियों से निकल के ये जिंदगी
कभी चौराहे पर आएगी या नही
कुछ भी समझ नही आता
हालांकि समझ कर हुआ भी क्या है आखिर
कितनी बार समझाना चाहा था तुम्हे
कि आखिर तुम समझती क्यो नही
लेकिन तुमने एक राय बना रखी थी
मुझे लेकर
फिर उस राय को बना लिया था
तुमने अपनी लक्ष्मण रेखा,
उस रेखा को लाँघकर में कभी नही बन ना चाहता था
कलयुग का दशानन
हालांकि बहुत सम्भव था ये सब मेरे लिए,
पर उस समय वो अहम था तुम्हारा
मेने उसे भी समग्रता से स्वीकार किया था
तुम्हारे उसी अहम के साथ,
असल मे तुम हार जीत के खेल में फस चुकी थी
उस वक्त, और में
हार कर भी जीत जाना चाहता था तुम्हे
याचना क्षमा जैसे शब्दो के पन्नो को तुमने
अपने शब्दकोश से कब का बाहर निकाल फेंका था
हालांकि उस दौरान बहुत कुछ खोया था मेने
तुम्हारे लिए,
ओर यहाँ तक कि एक दिन तुम्हे भी खो बैठा था
आज फिर ये वही रात उसी मुहाने पर खड़ी होकर
तुम्हे आवाज दे रही हैं
नही जानता कि अब तुम्हारे लिए
मेरे होने के कोई मायने है या नही
लेकिन आज भी में तुमको स्वीकार करता हूँ
तुम्हारे उसी अहम के साथ
असल मे तुम्हारे लिए हमेशा हारने को तैयार हूँ
तुम्हारा
तुमसे हारने का उत्सुक