आदमी की लुटाने की थी मियाद
थी सीमा समर्पण की
मैं चाहती थी करना ईश्वर-सा प्रेम
मगर मुझ में कूट-कूट कर भरा था आदमी
आदमी जो करता था ईष्र्या,
रखता था हिसाब
बेवजह होता था कमज़ोर
दुबला और बीमार
पूछते थे लोग
क्या तुम्हें खत्म कर रहा है प्रेम का रोग ?
क्यों आँखें रही है गढ़?
क्यों हो रहे है बेवक्त बाल सफेद ?
कभी-कभी अकस्मात् जाग जाता था आदमी का ईश्वर
और भाग-लोट कर प्रेम लुटाने की लगाता था गुहार
उस दिन आदमी में लेता था ईश्वर सांस
जो केवल जानता था प्रेम
चाहता था प्रेम में सब कुछ हार जाना
प्रेम लुटाने पर चेहरा आदमी का चमक जाता था
लोग कहते प्रेम निखर रहा है।
मगर ईश्वर की कम थी अवधि
हावी था ईश्वर पर आदमी
सौ दिन में जागता था सिर्फ एक बार ईश्वर
बहुत भोगता और ख़त्म होता आदमी
दगा देता, छल करता और अपनी हड्यिा गलाता आदमी
सन्त आते, जोगी आते और कहते-
जगा अपने ईश्वर को और कह कि प्रेम करे
कम से कम करे उतना भर कि जिन्दा बच सके आदमी
मगर आदमी के कान में लोगो की बात ही रेंगती
उसका ईश्वर छोड़ रहा है शरीर धीरे-धीरे
कुछ दिन बाद सिर्फ आदमी बच जाएगा
मगर उसका बचना मुश्किल होगा।