हिम्मत है गर विरोध का खंज़र उठाइये,
वर्ना खुदी है क़ब्र वहाँ लेट जाइये।
हक़ मिल सका न आज भी कोई गरीब को,
जंगे अवाम क़दमों की आहट जगाइये।
हत्यारा भी निजाम का हरकारा बना है,
साज़िश फ़रेब चाल से पर्दा उठाइये।
वैसे तो हाथ सैकड़ों, मुट्ठी भी कम नहीं,
पर तन सके जो बँध सके उनको गिनाइये।
जीवन में आस है कि सवेरा भी आयेगा,
सूरज पकड़ के आँखों के सन्मुख ले आइये।
चिल्लाना बंद करके यही सोचता हूँ मैं,
स्वराज के जो ख़्वाब हैं उनको बचाइए।
‘प्रभात’ खून से लिखो ऐ आज के कवि,
कोई भी बात स्याही से अब ना बनाइये।