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हीरा-मोती / शंभूप्रसाद श्रीवास्तव

हम गाँवों में खिलने वाले
नन्हे-मुन्ने फूल,
चंदन बन जाती है जगकर
अंग हमारे धूल!

सीधा-सादा रहन-सहन
मोटा खाना, पहनावा,
नहीं जानते ठाट-बाट
चतुराई और दिखावा।

मिलीं गोद में हमें प्रकृति की
दो वस्तुएँ महान,
हीरे जैसी हँसी हमारी,
मोती-सी मुसकान!

-साभार: शेरसखा, कलकत्ता