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हुये तुम क्यों इतने मजबूर / कमलेश द्विवेदी
Kavita Kosh से
कभी रहे तुम पास हमारे अब हो कितनी दूर।
हुये तुम क्यों इतने मजबूर।
हँसते-रोते, जगते-सोते
तुमको याद किया है।
तुमको याद किया है हमने
क्या अपराध किया है।
अगर यही अपराध सज़ा तुम हमको दो भरपूर।
हुये तुम क्यों इतने मजबूर।
हरदम साथ रहेंगे हम-तुम
ऐसे ख़्वाब दिखाये।
मगर अचानक डोर तोड़ दी
पतँग कहाँ अब जाये।
एक वार से किये हमारे सपने चकनाचूर।
हुये तुम क्यों इतने मजबूर।
भौंरा तो कलियों के सँग ही
गीत प्रीत के गाता।
शायद तुमने जोड़ लिया है
नई कली से नाता।
और बन गये हो उसके ही तुम सुह़ाग-सिंदूर।
हुये तुम क्यों इतने मजबूर।