है हमारे वास्ते जंजाल जी का
जिसे इतवार कहते हो
सिलसिला चलता
सुबह से शाम घर की
ख़्वाहिशों-सा घर बनाने का
नहीं रहता है ठिकाना
नहाने का,
नाश्ते का और खाने का
देखने को तरस जाता हूँ उसे भी
तुम जिसे अखबार कहते हो
बिखरता हूँ पल-व-पल
इस काम की, उस काम की
अनगिन हदों मे
फिर निरंतर खर्च होता हूँ
न जाने कब कहाँ
किन-किन मदों मे
बाँधता हूँ गाँठ मे हर हुक्म उसका
तुम जिसे घरबार कहते हो
सोचता हूँ है कठिन,
बेहद कठिन इतवार को
ये चाकरी घर की
भली ऐसे ‘वीकली-अवकाश’ से
तो नौकरी ही
रोज दफ्तर की
पर, अधूरी ज़िन्दगी है बिना उसके-
तुम जिसे परिवार कहते हो