भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हो धरा धनवान / प्रेमलता त्रिपाठी
Kavita Kosh से
चूनरी धानी पहन कर, हो धरा धनवान।
गीत गाता चल पड़ा हल, बैल ले अभिमान।
माथ पगड़ी प्रीत डगरी, काँध धर आधार,
देख निज धन धान्य छेड़े, मान से वह तान।
लहलहाती हो फसल हर, ले सकल संताप,
हाथ कंगन पाँव छम छम, साजि झुमके कान।
साज अँगना द्वार गैया, प्रीति ननदी सास,
ले चली धनिया सजन हित, शीश धर जलपान।
चेतना दो मान दो तब, हो कृषक खुशहाल,
उर्वरा होगी धरा यह, पा सकल अनुदान।
प्रेम से खुश ग्वाल बालक और सब परिवार,
देव मेरी भूमि को दो, अब यही वरदान।