भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

“माया"-श्रृंखला-६/रमा द्विवेदी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


१-संसार के कल्याण हित,
यमुना बनी,सरस्वती बनी।
पापियों के पाप धोके,
मंदाकिनी मैली बनी॥

२-राधा बनी,मीरा बनी,
पत्थर कभी वो बन गई।
सीता ने दी अग्नि-परीक्षा,
परित्यक्ता बन,वन को गई॥
 
३-माया बनी मायाविनी,
रूप कितने धर लिए।
असुरों का संहार करके,
मुंड़माल पहन लिए॥

४-रक्त-बीज जब-जब हुए,
दुर्गा भी काली बन गई।
रक्त की हर बूंद पीकर,
खप्पर भर कपाली बन गई॥
 
५-आजादी के संग्राम में,
'रानी'बनी थी चण्डिका।
देखकर उसका युद्ध-कौशल,
शत्रुदल भी दंग था॥

६-जीते जी न दे सकी थी,
जन्मभूमि की आन को।
मिट गई थी खुद ही,पर
बेंचा न था स्वाभिमान को॥